Monday 27 August 2012

गज़ल

मेरी तन्हाई मुझसे कभी ज़ुदा ना हुई
ख़ूब निभाया साथ मेरा, बेवफा ना हुई

अरमानों के पंख क़तर डाले हैं मैंने
उडते कैसे, इनके लिए फ़िजा ना हुई

लिपटते रहे दामन से गैरों के नाम
क्या करते अपनों से कभी वफा ना हुई

ना समझे हँसी की तिज़ारत का चलन
बेच के हँसी, वो कहते हैं ख़ता ना हुई

स्याह रातों से टपकी शबनम की बूँदें
ज़ज्ब हैं "ओम" के सीने में, ये फना ना हुई

गज़ल


तुम्हीं कह दो तेरे इश्क को भुलाऊँ कैसे
वज़ूद अपना मैं खुद ही मिटाऊँ कैसे

दिल के किले में महफूज हैं तेरी यादें
आदत बनी यादों से दूरी बनाऊँ कैसे

सर झुकाता रहा हूँ मुहब्बत के लिए
रंजिशों के बुत पर सर झुकाऊँ कैसे

कहने को बाकी बहुत हैं दर्द मुझमें
पर बेदर्द महफिल को सुनाऊँ कैसे

"ओम" को जमाने ने दीवाना नाम दिया है
जिन्दा हूँ दीवानगी से ही मैं बताऊँ कैसे

Saturday 18 August 2012

गजल


रमजान आ ईदक शुभ अवसर पर प्रस्तुत कऽ रहल छी एकटा गजल। ऐ गजलक प्रेरणा हम एकटा प्रसिद्ध कव्वाली सँ लेने छी।

मदीनाक मालिक अहाँ ई करा दिअ
करेजा हमर बस मदीना बना दिअ

हमर मोन निश्छल भऽ गमकै धरा पर
कृपा एतबा अपन हमरा पठा दिअ

बनै सगर दुनिया खुशी केर सागर
सभक ठोर एतेक मुस्की बसा दिअ

दया केर बरखा करू ऐ पतित पर
मनुक्खक कते मोल हमरा बता दिअ

दहा जाइ दुनिया सिनेहक नदीमे
अहाँ "ओम" केँ प्रेम-कलमा पढा दिअ
बहरे-मुतकारिब
फऊलुन (ह्रस्व-दीर्घ-दीर्घ) - ४ बेर प्रत्येक पाँति मे