Thursday 30 June 2016

गजल

ढूँढते हुए जिन्दगी का पता हम खुद लापता हो गए
महफिल में थे शायर हम ही, सारे शेर फ़ना हो गए
उनको छूने की ललक ऐसी हुई हमको दोस्तों
भूल के मंजिल का पता, क्या से क्या हो गए
मेरे शहर में अब सूरज की किरणें मद्धिम हुईं हैं
आँखों से बरसते सावन ही नभ की घटा हो गए
जिसने सीखा नहीं सज़दे में कभी सर को झुकाना
आज बन्दों से घिर कर सारे जग के ख़ुदा हो गए
थी रौशन चिरागों से ये महफिल "ओम" की बहुत
आग भड़की ऐसी कि ये महफिल चिता हो गए
-ओम प्रकाश

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