Thursday, 30 June 2016

विहनि कथा

विहनि कथा
मातृवत परदारेषु
इसकूलेक समैसँ ओ पढ़ैत छल "मातृवत परदारेषु"। श्लोकक ई अंश ओ सबकेँ सुनाबैत छल। आब ओ नौकरी करैए। ओ एखनो धरि ई श्लोक अंश दोहराबैत रहैए। मुदा सड़क पर, बसमे वा ट्रेनमे कोनो स्त्री वा बालिकाकेँ देखैत देरी ओकर आँखिमे एकटा चमक आबि जाइ छै आ ओ अपन नजरिसँ ओकर सभक देह ऊपरसँ नीचा धरि नापि लैत अछि। कतेको बेर ओ ऐ कलाक प्रदर्शनक बाद स्त्रिगण सभक कोपभाजन सेहो बनि चुकल अछि। मुदा आदतिमे कोनो बदलाव नै। कहल गेल अछि जे चालि, प्रकृति, बेमाय, तीनू संगे लागल जाय। आइ चौक पर जखन ओ अपन कलाक प्रदर्शन करैत छल तखन पीड़ित स्त्रीक हल्ला करै पर भीड़ ओकर पूजा क' देलकै लात जूतासँ। जावत किछु लोक ओकरा बचेलकै तावत ओकर मुँह कान फूलि चुकल रहै। हम जखन चौक पर पहुँचलौं तँ ओ अपन पूजा करबा क' चलि आबैत छल। हम पूछलिए की हाल चाल मीता। ओ कहरैत बाजल हाल देखिये रहल छह आ चालि हमर बूझले छह जे मातृवत परदारेषु।

No comments:

Post a Comment