Monday 27 August 2012

गज़ल

मेरी तन्हाई मुझसे कभी ज़ुदा ना हुई
ख़ूब निभाया साथ मेरा, बेवफा ना हुई

अरमानों के पंख क़तर डाले हैं मैंने
उडते कैसे, इनके लिए फ़िजा ना हुई

लिपटते रहे दामन से गैरों के नाम
क्या करते अपनों से कभी वफा ना हुई

ना समझे हँसी की तिज़ारत का चलन
बेच के हँसी, वो कहते हैं ख़ता ना हुई

स्याह रातों से टपकी शबनम की बूँदें
ज़ज्ब हैं "ओम" के सीने में, ये फना ना हुई

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