Thursday 10 March 2016

गजल

रूप मदिर, मदिराएल नैन
मेघ सनक करियाएल नैन
बालम बसि गेला कोन देस
राति बढ़ल अगुताएल नैन
चान पिया भेलौं हम चकोर
कानि कहल बिसराएल नैन
ओकर छवि देखै भोर-साँझ
यादि भरल सपनाएल नैन
"ओम" पिया अउता आइ सुनि क'
नाचि उठल हरखाएल नैन
मात्राक्रम 2-1, 1-2, 2-2-2-1, 2-1 प्रत्येक पाँतिमे एक बेर। सुझाव सादर आमंत्रित।
-ओम प्रकाश

मन का बात

बचपन में हम सोचते थे कि आखिर मछली कैसे पकड़ाता है। बाबूजी से पूछे तो ऊ डाँट दिए। कहे कि बड़ा हो के मछलिए मारेगा का। हम सकदम चुप हो गए। एक बार जखनी गाम गए ना तो उहाँ पर अलग अलग ईस्टाईल में मछलिया पकड़ते देखे। जब कक्का से पूछे तो ऊ हमको सब ईस्टाईलबा के बारे में बताए। बंसी से बोर देके नेन्हकी मछलिया सब धराता था। बड़की मछलिया सब जाल फेंक के धराता था। जाल में एकदिन एकठो दस से पन्द्रह किलो का मछली धराया था जो जाले फाड़ के भाग गया। कक्का समझाए कि बड़का मछलिया पकड़ना एतना आसान नै है से बूझ लो। छोटकी मछलिया आरामे से पकड़ा जाता है। खैर जब गाम से घूर के आ गए तब इसी फिराक में रहते थे कि मछली पकड़न ज्ञान का पिरेकटीकल किया जाय। लेकिन स्साला कोनो जोगाड़े नै भेंटता था। एक रोज इसकूल से आने टाईम एकठो खंता में मछलिए जैसन चीज देखे। फिर क्या था उतर गए खंता में और दनादन दस ठो छोटकी मछलिया पकड़े और कौपी से पन्ना फाड़ के ठोंगा बनाए जिसमें मछलिया सबको रखकर घर ले आए। पूरा कपडा में कादो लगल देखके माय जो बमकी सो का कहें। ऊ घड़ी 'दाग अच्छे हैं' बला परचरबो तो नै आया था। मछली देखके तो माय आरो गोस्सा गई। बोली कि एक तो कपड़बा गंदा कर लिया और ऊपर से बेंगमछली पकड़ के ले आया। ऊ घड़ी हमरा मछली आ बेंगमछली के अंतर थोड़े बूझल था। खैर एतना दिन बाद ई प्रसंग इसलिए मोन पड़ गिया कि समाचार में एक जगह पढ़े कि बड़ी मछली पुलिस के पकड़ से बाहर। ई कहना आसान है कि पुलिस बड़ा मछली नै पकड़ता है पर बड़ा मछली पकड़ने में केतना कष्ट है ई हम अपन आँख से देखे हैं जी। या तो जाले फाड़ देगा नै तो पूछरी से मार मार के देह फोड़ देगा।एही से कहते हैं कि खंता में जा के बेंगमछलियन सब के धरना चाहिए जो ऊ लोग कर रहे हैं। उन सबको हमर डंडवत है काहे कि मछलिया पकड़ तो रहे हैं ना, भले बेंगमछलिए हो। आशा है कि हमरा मोन का बात सुन के ऊ लोग गोसियायेंगे नै।

शायरी

नारीकेँ नै वस्तु बुझू, नारीक सम्मान करू
माए, बेटी, बहिन हमर, नै कोनो अपमान करू

मन का बात

हम जहिया स्टुडेन्ट थे, तहिया बाबूजी पढ़ते रहने के लिए एक्के ठो धमकी देते थे। कहते थे कि रे गदहा ठीक से पढ़, नै तो एक ठो भैंस कीन देंगे आ तू भैंस चराना। ऊ ई बात एतना आथेन्टिकली कहते थे कि हमरा सब.के सपनो में भैंस देखाता था। ऊ एकठो बात औरो कहते थे कि व्यस्क होने का उमर पहले 21 था और अब 18 है और जब तू व्यस्क हो जाएगा तब पिछवाड़ा पर लात दे के बाहर कर देंगे। बाद में उन्होंने लात मारने की उमर बढ़ा के 25 कर दिया। और ई भी कहा कि 25 बरस के बाद पढ़ाई नहीं होती है। हमहू सब जोड़ घटाव कर के देखे कि आई. ए. बी. ए. एम. ए. आदि करने में 25 बरस तक होइए जाता है अगर सेशन लेटो हो जाए तैयो। अगर पी. एच. डी. करेगा तो दू साल औरो जायेगा। खैर बाबूजी के धमकी का ई रिजल्ट हुआ कि बाईसे बरस में नौकरी करने लगे। इधर यूनिवर्सिटी सब का बवाल समाचार में आया तो ई देखे कि हुआँ तो स्टुडेन्टवन सब पैंतीस आ चालीसो के उमर में पढ़िये रहा है। उनका बाबूजी लोग केतना अच्छा है। नौकरिया में लग जाएगा तो देश में हलचल कैसे मचाएगा। हम आज इस पोस्टवा के माध्यम से ऐसन सब स्टुडेन्टवन सब के डंडवत करते हैं जो नौकरिया के चिन्ता छोड़ के बुढ़ारी तक पढाई में लगल है आ देश में हलचल मचइले है।उनकर बाबूओजी सब के डंडवत करते हैं। आप लोग हमरे मन का बात सुन के गोसियाइएगा नहीं से प्रार्थना है।

गजल

आजकल मजमे में जाने से डरता हूँ
गूँज रहे नारों के फ़साने से डरता हूँ
बंद मुट्ठी आया था फैले हाथ ही जाऊँगा
फिर भी जाने क्यों मैं ज़माने से डरता हूँ
हौसला बहुत है, ऐसा दिल कहता है
यहाँ पे ख़ुद को आज़माने से डरता हूँ
सब की क़िस्मत की अपनी ही कहानी है
खुदी है पेशानी पर, सुनाने से डरता हूँ
जाने हुए चेहरे अजनबी से लगते हैं
अब तो इनको मैं अपनाने से डरता हूँ
-ओम प्रकाश

गजल

रंगि दिय' हमरा रंग बसंती
आब चाही हम अंग बसंती
ओकरे नामे लीखल जिनगी
भेल छै ओकर संग बसंती
ढंग एहन बनि जाय हमर जे
सब कहै देखू ढंग बसंती
जोश जे नबका फेरसँ चढ़लै
विस्मयसँ भेलै दंग बसंती
शत्रु "ओम"क रण छोड़ि पड़ायत
हम लड़ब एहन जंग बसंती
मात्राक्रम 2-1-2, 2-2-2-1, 1-2-2 सब पाँतिमे एक बेर। सुझाव सादर आमंत्रित।

गजल

आसक डोरि टूटि चुकल अछि
भाग्यक घैल फूटि चुकल अछि
आबो मोन बाट तकै छै
रस्ता कहिये छूटि चुकल अछि
की कहियै समैक ई लीला
प्रेमक गीत कूटि चुकल अछि
छलियै प्रिय हुनकर कहियो
खिस्सा बनि क' छूटि चुकल अछि
"ओम"क मोन मोर बनल छै
मोनक तान लूटि चुकल अछि
दीर्घ-दीर्घ-दीर्घ-ह्रस्व, दीर्घ-ह्रस्व, ह्रस्व-दीर्घ-दीर्घ प्रत्येक पाँतिमे एक बेर। दोसर शेरक दोसर पाँतिमे आ तेसर शेरक पहिल पाँतिमे एकटा दीर्घकेँ ह्रस्व मानबाक छूट लेल गेल अछि। सुझाव सादर आमंत्रित अछि।

गजल

सुनते कभी तुम तो हम भी सुनाते
मुहब्बत की प्यारी बातें बताते
जुल्फों की लट है कि काली घटा है
उलझन दिलों की है, ये सुलझाते
आँखों की मदिरा बहुत है नशीली
नशा इन आँखों का दिल को पिलाते
तुम्हारी हमारी मुलाकात को हम
किताबों का प्यारा पन्ना बनाते
गुजरते कभी "ओम" की गली से भी
तो कदमों में तेरी ये दुनिया लुटाते
ओम प्रकाश

कविता

चिड़ै आ बहेलिया
भोरे-भोर आँगनमे
उतरि जाइए चिड़ै।
चुहचुहाइत, फुदकैत,
पसारल अनाज पर
लोल मारैत चिड़ै।
हाँटबै जखने
तँ फुर्र उड़ि जाइए
आकाशक पसरल आँचरमे।
आजादीक उत्कर्षक
परम विमर्श अछि चिड़ै।
ओकर उड़ानमे लय छै,
जिनगीक संगीतक लय,
नब आसक लय,
नब बासक लय।
मुदा ओ बेखबर अछि
बहेलियाक नजरिसँ।
चंडाल बहेलिया
अट्टहास करैए
आकाशसँ ऊँच।
सौंसे सृष्टिमे पसरल
ओकर वीभत्स अट्टहास।
अट्टहासक पाछू
नुकाएल छै
ओकर शिकारी आँखि।
गुलामीक उत्कर्षक
परम विमर्श अछि बहेलिया।
ओकर अट्टहासमे छै
समेटल क्रूर चालि,
मारि खसेबाक चालि,
शांत क' देबाक चालि।
ठाँय।
ई थीक गोलीक आवाज।
खसि पड़ल चिड़ै भू-लुंठित।
ओकर माटिमे सानल
निष्प्राण देह
द' रहल अछि
बहेलियाक करतूतक गवाही।
मुदा आजादीक उत्कर्षक
विमर्श खतम नै भेल।
एखनो उड़िये रहल अछि
एकटा आर चिड़ै
नीलगगनक छाती पर।
एखनो ताकिये रहल अछि
बहेलियाक नजरि
क्रूर अट्टहासक संग।
ओम प्रकाश

कविता

दोसराइत
असगरूआ माए जोहैत अछि बाट
अपन बेटाक गाममे।
असगरूआ कनियाँ जोहैत अछि बाट
अपन वरक किरायाक खोलीमे।
असगरूआ बच्चा जोहैत अछि बाट
अपन बापक इसकूलक होस्टलमे।
ओ बेटा, ओ वर, ओ बाप
अपसियाँत भेल जिनगीक मारामारीमे
जोहैत अछि बाट शान्तिक
आ संतोषक जीवनमे।
सबकेँ चाही दोसराइत
असगरूआ मरूभूमिमे।
बालु आ गरमीसँ औनाएल मोन
दोसराइतक बाट जोहैत रहैए।

कविता

रातिक खाधि
कारी रातिक गहीर खाधिमे
मोन उतरि जाइए कखनो।
ओहि खाधिमे ताकैत रहै छी
कोनो चिन्हार चेहरा,
जे हुलसि पकड़ि क' बाँहि हमर
निकालि लेत हमरा
ओहि भयाओन खाधिसँ।
मुदा ई की देखै छी हम
जे हाथे नै छै ओकरा।
छै तँ खाली एकटा निर्विकार मुँह।
झमाएल पितियाएल मुँह।
सुखाएल गन्हाएल मुँह।
आँय ई के छी
पूछि बैसैत छी अपन करेजसँ।
करेज हँसैत अछि हमरा पर
उपेक्षा आ तिरस्कारसँ
आ कहैत अछि गंभीर भावसँ
जे आब अपनेकेँ बिसरि गेलही तूँ।
ई तूँ छैं महकैत सड़ल गन्हाएल फूल
जकर कोनो कीमत नै।
सड़ि क' समाहित भ' जएबही
ऐ माटिमे
जतय तोरे जकाँ असंख्य लोक
जुग जुगसँ समाहित अछि
छटपटा कए ऐ रातिक खाधिमे।
ओम प्रकाश

गजल

छै मुद्दा बहुत गरम छै
छै बाझल सभक धरम छै
आँखिसँ कान पैघ भेलै
छै पसरल कते भरम छै
हुड़दंगक बजल बिगुल छै
छै बिगुलक किछो मरम छै
नै जानी मुँहसँ खसत की
छै लहकल हमर शरम छै
"ओम"क टोलमे रहत के
छै फूटल जकर करम छै
दीर्घ-दीर्घ-दीर्घ-ह्रस्व + दीर्घ-ह्रस्व-दीर्घ-दीर्घ प्रत्येक पाँतिमे एक बेर।
सुझाव सादर आमंत्रित।

शायरी

बन जाऊँ तेरा आईना, यही हसरत थी मेरे दिल में
एक सुलगती आग सी तेरी उलफत थी मेरे दिल में
माना तू चाँद है, रहा करता है कहीं दूर गगन में
पर एक बार तुझे छू लेने की चाहत थी मेरे दिल में

कुण्डलिया

शरम कभी ना कीजिए जब कुछ पाने की हो बात
अगर दुधारू भैंस हो तो सहना चाहिए उसकी लात
सहना चाहिए उसकी लात जो कभी दो चार पड़े
खिदमत में उसके रहिए हरदम आठों पहर खड़े
कहे ओम कवि आपसे कि अब छोड़ के सारे भरम
सकुचाना किस बात का माँग के खाने में कैसी शरम

कुण्डलिया

हुनकर रूप देखि कए नैन जुराईत रहैए
लग जखन अबै छथि किछु नै फुराईत रहैए
किछु नै फुराईत रहैए बन्न भ' जाईए बोली
सदिखन यैह सोचै छी ई भेद कोना हम खोली
कहलनि कवि ओम जखन ओ भेंटथि असगर
सबटा भेद कहि दियौन देखि कए आँखिमे हुनकर