Thursday 10 March 2016

कविता

चिड़ै आ बहेलिया
भोरे-भोर आँगनमे
उतरि जाइए चिड़ै।
चुहचुहाइत, फुदकैत,
पसारल अनाज पर
लोल मारैत चिड़ै।
हाँटबै जखने
तँ फुर्र उड़ि जाइए
आकाशक पसरल आँचरमे।
आजादीक उत्कर्षक
परम विमर्श अछि चिड़ै।
ओकर उड़ानमे लय छै,
जिनगीक संगीतक लय,
नब आसक लय,
नब बासक लय।
मुदा ओ बेखबर अछि
बहेलियाक नजरिसँ।
चंडाल बहेलिया
अट्टहास करैए
आकाशसँ ऊँच।
सौंसे सृष्टिमे पसरल
ओकर वीभत्स अट्टहास।
अट्टहासक पाछू
नुकाएल छै
ओकर शिकारी आँखि।
गुलामीक उत्कर्षक
परम विमर्श अछि बहेलिया।
ओकर अट्टहासमे छै
समेटल क्रूर चालि,
मारि खसेबाक चालि,
शांत क' देबाक चालि।
ठाँय।
ई थीक गोलीक आवाज।
खसि पड़ल चिड़ै भू-लुंठित।
ओकर माटिमे सानल
निष्प्राण देह
द' रहल अछि
बहेलियाक करतूतक गवाही।
मुदा आजादीक उत्कर्षक
विमर्श खतम नै भेल।
एखनो उड़िये रहल अछि
एकटा आर चिड़ै
नीलगगनक छाती पर।
एखनो ताकिये रहल अछि
बहेलियाक नजरि
क्रूर अट्टहासक संग।
ओम प्रकाश

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