Monday 19 September 2011

मैथिली गजल


अहाँ कतेक बहायब अपन नोर, दुख कियो नहि बाँटत।
जाहि खदहा के ओर नञ छोर, ओकरा कोना के पाटत।

देखू गुलाब के चिर-मुस्की उपवन के भेल छै शोभा,
डारि मे काँट छै पोरे-पोर, इ दुख ककरा से बाजत।

टूटल माला के मोती तकै मे बालु किया फँकैत छी,
कतबो कियो लगाबय जोर, मोती घुरि नहि आयत।

लड्डू, बर्फी, रसगुल्ला सन मधुर के लागल चस्का,
चखियो कनी पटुआ के झोर, मधुर बेसी मीठ लागत।

घुप्प अन्हरिया राति मे "ओम" के मोन मे छै इ आस,
साँझ के पाछाँ हेतै भोर, अन्हरिया कोना नहि फाटत।

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